शाहिद कपूर की फिल्म 'देवा' का क्लासिक पाथ
बॉलीवुड की फिल्मों में जब भी एक्शन-थ्रिलर की बात होती है, तो दर्शकों के मन में एक खास उम्मीद होती है कि उन्हें एक शानदार कहानी के साथ रोंगटे खड़े कर देने वाला एक्शन देखने को मिलेगा। 'देवा' फिल्म लॉकर में इसी उम्मीद को लेकर आई, जिसमें शाहिद कपूर ने मुंबई पुलिस के एक गुस्सैल और जुझारू अधिकारी देव अंबरे का किरदार निभाया है। फिल्म की शुरुआत धमाकेदार है, जिसमें शाहिद का किरदार न केवल शारीरिक रूप से परिपूर्ण दिखता है बल्कि उसे निभाने का उनका उत्साह भी काबिले तारिफ है।
पात्रों की मारामारी और कहानी की घिसावट
रोशन एंड्रूज के निर्देशन में बनी इस फिल्म का पहला भाग काफी सशक्त है, जिसमें मुंबई के परिचित और अपरिचित स्थानों को भी बड़ी खूबसूरती से कैद किया गया है। शहरी जीवन की जटिलताओं को दिखाने के लिए निर्देशक ने कई जगहों के गहरे पहलुओं पर ध्यान दिया है। फिल्म की शुरुआत में देव अंबरे अपने साथियों के साथ एक खतरनाक गैंगस्टर की हत्या करता है और उसका श्रेय अपने दोस्त एसीपी रोहन डिसिल्वा को देता है।
लेकिन जैसे-जैसे कहानी आगे बढ़ती है, दर्शकों को महसूस होता है कि घटना क्रम गति खोने लगता है। जब रोहन की हत्या हो जाती है तो देव के लिए एक नया प्रकरण शुरू होता है जहां उसे अपनी दोस्ती के बदले की आग में झुलसते हुए देखा जा सकता है। लेकिन, जीवन की लड़ाई के इस हिस्से में 'देवा' कहानी के धागे खो जाते हैं।
हिंसा, स्मृति और जटिलता का जंजाल
फिल्म के मध्यांतर के बाद, जब देव को सिर पर चोट लगती है और उसे स्मृति हानि का सामना करना पड़ता है, तो कहानी में कई मोड़ आते हैं। ये मोड़ न केवल मिश्रण को जटिल बनाते हैं बल्कि दर्शकों को भी भ्रमित करते हैं। 'देवा' फिल्म को समझने के लिए जितना दिमाग लगेगा उतना शायद ही कभी किसी अन्य फिल्म के लिए लगता हो।
फिल्म में पत्रकार दीया साठे, जिसकी भूमिका पूजा हेगड़े निभा रही हैं, को सही से उपयोग नहीं किया गया है। उनकी उपस्थिति केवल कहानी में एक और नाम जोड़ने के लिए लगती है, जो खटकता है। इसी तरह, पवैल गुलाटी और प्रवेश राणा ने भी अपने किरदारों को निभाने में सक्षम प्रदर्शन दिया है, लेकिन उनके किरदारों की तिरछी रेखाएं कहीं गुम सी लगती हैं।
फिल्म की कथा में निहित नागरिक आयोजनों का अभाव
फिल्म में कई उतार-चढ़ाव हैं जो दर्शकों को बांधे रखने की कोशिश करते हैं, लेकिन इसके पूर्वानुमानित क्लाइमेक्स के कारण यह मजबूती नहीं पकड़ पाती। शायद यह बॉलीवुड की एक स्थलकृति है, जहां कुछ नया और जुनूनी प्रस्तुत किया जाता है लेकिन कहीं न कहीं उन कहानियों की खोखली धड़कनों में कुछ नएपन की कमी हो जाती है।
समस्या का मुख्य कारण फिल्म का लेखन है, जो किसी घिसे-पिटे आलेख की तरह लगता है। भले ही कई एक्शन दृश्यों की सूचियाँ और निर्णय हो, उन्होंने कहानी को बहुत आगे नहीं बढ़ाया है। इसके बावजूद, शाहिद कपूर के प्रदर्शन को विकटता से सराहा जाना चाहिए। लेकिन, फिल्म की सपाट संरचना और कथा की कमजोरी इसे एक सामान्यभूमि पर ले आती है, जो दर्शकों को उत्साह में डूबोने में असफल होती है।
8 टिप्पणि
क्या आपको नहीं लगा कि इस फिल्म की कहानी में कहीं न कहीं गुप्त एजेंटों की साजिश छिपी है!!! सरकार के अंदरूनी लोग जनता को इस प्रकार की झूठी एक्शन से विचलित करने की कोशिश कर रहे हैं!!! यह सिर्फ एंटरटेनमेंट नहीं, बल्कि एक बड़े नियंत्रण योजना का हिस्सा है!!!
bhai, ye film poori tarah se bekaar hai, hamare asli hero ko dikhane ka koi irada nahee hai, bas bakwaas action scenes daale gaye hain, desh ki cinema quality ko nuksan pohcha rahe hain.
मैं समझ सकता हूँ, कई दर्शक निराश हुए हैं, लेकिन शाहिद कपूर का प्रदर्शन कई लोगों को प्रेरित कर सकता है, क्योंकि वह अपनी भूमिका में पूरी ईमानदारी लाते हैं, और यह भावनात्मक गहराई दर्शकों को जोड़ती है, इसलिए शायद कुछ पहलू में फिल्म सफल हुई है।
देवा फिल्म की शुरुआत में महाकाव्य पुलिस दृश्यों ने दर्शकों को तुरंत मंत्रमुग्ध कर दिया।
शाहिद कपूर का किरदार देव अंबरे पारम्परिक नायक से बहुत अलग, अत्यधिक तीव्र भावनाओं से लैस है।
मुंबई की गलियों को दर्शाते हुए कैमरा की गतिशीलता में शहर के इतिहास की झलक मिलती है।
हालांकि, कहानी के मध्य में स्मृति हानि का मोड़ दर्शकों को उलझन में डालता है।
यह मोड़ फिल्म को एक मनोवैज्ञानिक थ्रिलर की ओर ले जाता है, परन्तु अक्सर यह असमंजस पैदा करता है।
पत्रकार दीया साठे का पात्र, जो सामाजिक सच को उजागर करने वाला था, काफी साइडलाइन पर धकेल दिया गया।
पवैल गुलाटी और प्रवेश राणा ने अपने किरदारों को सच्ची भावना से प्रस्तुत किया, पर उनके सभी पलों को शॉर्टकट में काट दिया गया।
फ़िल्म के एक्शन सीक्वेंस में कई बार CGI का अति प्रयोग देखा गया, जिससे वास्तविकता का तत्त्व गिर गया।
फिर भी, शाहिद की शारीरिक तैयारी और स्टंट पर उनका अनुशासन सराहनीय है।
इस फिल्म में भारतीय पुलिस की जटिलताओं को दर्शाने के लिए कई सामाजिक मुद्दे छुए गए, जैसे भ्रष्टाचार और मित्रता की कीमत।
हालांकि, इन मुद्दों को गहराई से नहीं बैठाया गया, जिससे वे सतही लगते हैं।
संगीत का प्रयोग भी बहुत ही घटिया रहा, जो उत्साह को बढ़ाने के बजाय कहानी के साथ ताल नहीं मिला।
फिर भी, दर्शक अगर केवल एक्शन और नाटकीय प्रदर्शन चाहते हैं, तो यह फिल्म उन्हें निराश नहीं करेगी।
कुल मिलाकर, देवा एक मिश्रित अनुभव है-जिसमें कुछ चमकते क्षण हैं, परन्तु पूरी कथा में निरंतरता की कमी है।
इसलिए, इसे देखना या न देखना व्यक्तिगत पसंद पर निर्भर करता है, परन्तु उम्मीद है कि अगली बार फिल्म निर्माताओं को कहानी के धागे को मजबूत रखना चाहिए।
भाई, मैं इस राय से सहमत हूँ, लेकिन कुछ पहलू में फ़िल्म ने कुछ ख़ास नहीं किया, कई सीन कटल-एंड-ड्रॉप लगते हैं, और कहानी का प्रवाह थोड़ा अस्थिर है!!!
इस फिल्म में बहुत कुछ सीखने को मिला 😊 जीवन में कभी‑कभी यादें धुंधली हो सकती हैं, लेकिन साहस और ईमानदारी हमेशा चमकती रहती है 😇 हम सबको अपने कर्मों की जिम्मेदारी निभानी चाहिए, चाहे परिस्थिति कैसी भी हो।
चलो, अगली बार बेहतर फिल्म देखेंगे :)
dekh lo, ye film sirf time pass hai, kuch khaas nahi.
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